Tuesday 18 November 2014

रेत के सेहरां में..








वो उपवन की बाट जोहती 
रेत के सेहरां में

झुलसाता हुआ झोंका नरमी 
ले उड़ा चुनर के मानिंद  
एक बूंद पानी और धुंआ होता 
नीला क्षितिज 

बदली खुद में प्यासी की प्यासी 
ही बरसी लौट गयी
हथेली भर उस नमी को
फिर से उधार लेने  
सुदूर सागर की गहराइयों में 

जहां अनवरत सीपियां सहेजती हैं 
मोती जहन में
मौजें साहिलों के अधरों पर अधर
रख जाती अपने

देख आश्चर्यचकित मौन एक रेखा
सी खींच देती अपने चहुँ ओर 
आशंकित है चिंतित है मन में
चलते द्वंध से

क्या होगा ? 
व्योम के उस पार छिपे गर्भ में 
आलौकिक उल्लास उसके लिए भी 
जो क्षणिक होगा 

प्रेममयी सी विभोर हो उठती है 
चल देती फिर उसी प्यासे 
रेत के सेहरां की ओर...

Monday 13 October 2014

काश.........










शमशान यहीं से है 
यही रास्ता है 
वहां तक जाने का 
जहां तुम खड़े हो 
जहां मैं खड़ी हूँ 
मैं जान चुकी हूँ 
ज्ञात है मुझे 
मैं तुमसे कह रही हूँ 
तुम सुन रहे हो ?
अरे तुम ही तो 
यहां वहां मत देखो 
और सुनो 
तुम्हारा जीवन बीत गया 
जो बचा है वो तेजी से बीत जायेगा 
मैं जानती हूँ 
तुम्हें भान नहीं हुआ  
तुम्हारा जीवन कब बीता 
कैसे बीता
अभी तक तो बंद मुट्ठी थी 
सब कुछ था उसमें 
अनायास जो खुल गयी 
खाली मिले हाथ
अब ...  
तुम जीना चाहते थे
अपने जीवन के एक एक पल को 
मगर नहीं जी पाये 
अब ये प्रश्न बन गया है 
तुम्हारे लिए 
तुम्हारा ही है अपने आप से
प्रतिदिन तुम ये प्रश्न करते हो खुद से
पर उत्तर नहीं मिलता 
मिलेगा भी नहीं  
इस सवाल पर अचरज कैसा ?
कोई और मौका भी नहीं 
काश.........
जैसे शब्द सिर्फ पीड़ा देते हैं 
जीवन असफल लग रहा है 
प्रेम भी अधूरा रह गया 
जीवन में मिली असफलताएं
एक दिन प्रश्नों में तब्दील हो जाती हैं  
अब उम्र का वो दौर आ पहुंचा है 
जिसके बीतते क्षणों में 
थकान के सिवाय कुछ नहीं
तन की थकान से ज्यादा 
मन की थकान  
बड़ा विस्मयी है जीवन का खेल 
क्या करें ?
खेलना भी पड़ेगा और 
अंत में हार भी जायेगें 


Tuesday 8 July 2014

भीगे भीगे एहसास









महक नरगिसी फूलों की आई जंगल से 
न पता न मालूम कौन उसका माली है 
मुहब्बतों अल्फाजों से भरे पन्ने दिखे 
मगर दिखे सबके दिल खाली खाली हैं 

ये कौन है जो रोकता है उसका रास्ता 
उजाड़ मन के बीहड़ कोने में झांकता 
एक सांवला सलौना रूप नजर आया 
उडी जो रुख पर जुल्फें काली काली हैं

मन को सींचते भीगे भीगे थे एहसास 
पहली बूंद से अंकुर में जगी वो प्यास  
बेरुखी पतझड़ से भी ज्यादा हो जाए  
क्या सोच जहन में ऐसी ऋतुएँ पाली हैं  

प्रतिमा यौवन की करती अपना श्रृंगार 
मिलन की आस प्रेम भी आ पहुंचा द्वार 
आहट से तेज हुई धड़कनें हया से घिरी 
चौखट पर गिरी उसकी लटकती बाली है 

Tuesday 8 April 2014

तुम आये हो तो मैं आती हूँ









तुम आये हो तो मैं आती हूँ
राज कुछ दिल के समझाती हूँ

इन बंद दरवाजों की जंजीरों को खोल दूं जरा 
इन चंद दीवारों का दामन छोड़ दूं ज़रा 
दर्द  के कितने किस्से आकर सुनाती हूँ 
कौन दुःख आया मेरे हिस्से सब बतलाती हूँ

गम में डूबा रहा रात भर उस दिल को निचोड़ लूं ज़रा 
पुर्जा पुर्जा हो गयी उस तस्वीर को जोड़ लूं ज़रा 
कुछ पुराने जख्म तुम्हें दिखलाती हूँ 
साथ अपने कोई मरहम ले आती हूँ

मृत शय्या पर जो पड़ी रही उसको कफ़न ओढ़ दूं ज़रा 
तनहा आँगन में खड़ी रही उसे वापिस मोड़ दूं ज़रा 
तन्हाई को दूर कहीं छोड़ आती हूँ 
परछाई के पीछे दौड़ आती हूँ 

बंद पड़ी दिवार घडी की सुइयों को छेड़ दूं ज़रा 
चिथड़ों में लिपटे लिबास को उधेड़ दूं ज़रा 
सुप्त मन की तृष्णा को जगा आती हूँ 
अनसुलझी पहेली को सुलझा आती हूँ 

खण्डर बन चुकी इस हवेली से विदा तो हो लूं ज़रा 
दुल्हन बन आयी थी नवेली बहा लूं दो आंसूं ज़रा 
एक कहानी कुछ बातें दफना आती हूँ 
कागज पर लिखी यादें  जला आती हूँ

तुम आये हो तो मैं आती हूँ 

Sunday 16 February 2014

अपना सा आकाश








आँखें देखती हैं जिंदगी की
आवाजाही धीरे धीरे 
बचते बचाते मैं भी चलती हूँ
नदी के तीरे तीरे 
फिर किसी बात की तुनक मिजाजी 
फिर किसी बात पर ताना
सोचने पर विवश करने लगा 
फिर क्यों हमको ये जमाना 
दल दल इतना है सिकुड़ती है
जमीन एहसासों की 
रोज चरमरा जाती है खिड़कियां
बनते विश्वासों की
हवा के झोंकें की सुगबुगाहट 
खामोशियों को चीर देती है 
बदलते रिश्तों की परिभाषाएं
अनचाहे आँखों में नीर देती हैं 
सींचती हूँ बंजर जमीन पर
फूल पत्तों की धरोहर 
सहनशीलता की बेदी पर लगी
कमजोरियों की नाजुक मोहर
एक दहलीज मेरी बस बाकी 
घर लगता है बेगाना
अल्हड़ सी बन कर रह गयी
सारा अंगना हुआ सयाना 
अपनों की चाह समझने में 
कतार लग गयी प्रयासों की 
अंदाजन नाप तोल लेती कभी 
लगती झड़ी कयासों की
मन के कोने की सुनहरी धूप में
अब नयी कोंपले खिलती हैं 
इसी बसंत के आने पर जीने की 
वजह मुझे मिलती है
ही अस्तित्व की नीवं ही
ऐसी कोई तलाश चाहिए 
परों को खोल उड़ सकूं बस एक
अपना सा आकाश चाहिए  

  

Sunday 26 January 2014

तुम हो तो मैं सब कर लूंगा माँ











माँ मैंने तुम्हें देखा है आज 

नजदीक से

तुम्हारे चेहरे पर इतनी झुर्रियां

कैसे पड़ गयी 

माँ तुम इतनी जल्दी बूढ़ी कैसे

हो गयी

क्या ये असमय पड़ रही रेखाएं

मेरे लिए की गयी जन्म से लेकर

आज तक की चिंताएं हैं

जब मैं ठिठुरती ठंड में अपनी

जुराबें उतार कर नंगे पावं

बरामदे में दौड़ पड़ता 

उस ठण्ड में भी तुम पसीने से

भर जाती

और हाथ पावं ठंडे पड़ जाते 

कहीं मैं बीमार न हो जाऊं

मेरी एक हलकी सी छींक तुम्हें

शायद रात भर सोने नहीं देती थी

तुम माँ हो ये बात तुम कभी न 

भूल पायी

मैं तुम्हारा बेटा जाने ये कैसे भूल गया

की तुम्हारे हाथों की हड्डियां अब

कमजोर हो चुकी हैं

तुम्हारी नजर मुझे चोरी से असहाय

होकर देखती है

तुम अपने चश्मे को बदलवाने के लिए

भी नहीं कहती हो

जबकि तुम मेरे लिए हर रोज

नए कपडे लाती थी 

क्यों माँ क्या मैं इतना पराया हो गया हूँ

या इतना भी नहीं समझता

तुम आँगन में चर्र पर्र करती चिड़ियों को

उड़ा देती थी 

ताकि मैं आराम से सो सकूं

तुम्हारी आँखें उस चूल्हे की राख

के धुएं में और ज्यादा खराब हो गयी हैं 

जिस के चारों तरफ तुम्हारा पूरा

जीवन गुजर गया

कितनी अपनी अभिलाषाएं तुमने

मेरी एक ख़ुशी के लिए आग में जला दी

उसी राख में तुम्हारे न जाने कितने

अरमान दबे पड़े हैं

मुझे कितनी मर्तवा भूख लगी होगी 

कितनी रोटियां तुमने मेरे लिए बनाई

होंगी

मैं जानता हूँ आज तुम्हें भूख लगी है न

न जाने मैं तुम्हारे लिए एक रोटी

बना पाऊंगा कि नहीं

तुम मेरे पास बैठो माँ 

मुझे बस बताते जाना

मैं बना लूंगा माँ 

तुम हो तो मैं सब कर लूंगा माँ

सब कर लूंगा
















































Tuesday 7 January 2014

मर्यादा में बंधी औरत







    मर्यादा में बंधी औरत 
    जीती है अपने अरमानों में
    जलाती सपनों की गीली लकड़ियां
    दबाती राख के मैदानों में

    एक आह निकल कर दौड़ती है 
    आँगन की दहलीज तक
    कभी सांसें नजर आती हैं 
    आधी अधूरी बंद मर्तबानों में

    ये किस्सा निकल आता है 
    रोज सुबह की अंगड़ाइयों से 
    लोग बातें करते हैं दिनभर
    बंद दबी जुबानों  में

    नीयतों की कालिख जमा 
    हो गयी है इन दिनों 
    कभी हीरा भी निकल आता है 
    कोयले की खदानों में

    कुछ जुर्म ऐसे भी हो गए 
    जान पाते इस से पहले 
    प्रेम के पंछी बंद हो गए 
    अतीत के तहखानों में 

    फूल उपवन सारे बीहड़ 
    जंगल बन गए हैं
    आँखें ढूंढती हैं कोई अपना 
    इन वीरानों में 

    बचपन के पन्ने को मासूमियत 
    से पलट दिया इस तरह  
    कि गिनती होने लगी 
    हमारी अब सयानों में



मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...