Monday 31 August 2015
Friday 14 August 2015
समीक्षा .."आधी रात के रंग" Midnight colors..
साहित्य का हर एक क्षण अनमोल है , कवि विजेंद्र जी से मेरी मुलाकात फेसबुक पर ही हुई उनको हाल फिलहाल में कई साहित्यिक पत्रिकाओं में पढ़ा सो उनको पहचानने में देर नहीं लगी | वे एक वरिष्ठ परिष्ठित कवि हैं ये बात भला कौन नहीं जानता मगर यहां आज बात रंगों की है कैनवास की है , आह ! ..कैनवास पर बिखरे रंग मेरी धड़कन हैं मुझे पता है, लेकिन ये चित्र मुझे सम्मोहित करने में जुटे थे ..उनकी भाषा परिभाषा एक जादूगरी.. आखिर ये कौन चित्रकार है ?
एक व्यापक समारोह सा प्रतीत होता है,जितनी बार भी पन्ने पलटना उतनी ही बार वायलन की एक मीठी धुन चलती है.. कैनवास पर कभी रंग तो कभी शब्द अपना अस्तित्व बिखेरते हैं, मूक भाषा में जीवन गिरहें खोलते हुए कभी अनछुए कभी सतही और कभी गहरे में जा धसते | सृष्टि के सम्पूर्ण सौंदर्य की व्याख्या करना आनंददायी तो है ही..कोई निजता में मन की अंतरंग सतहों के भीतर से अभिव्यक्ति का मूक रूप निकाल कर रंगों शब्दों का अद्भुत संसार रच सकता है ये समझना थोड़ा जटिल विषय है और विस्मित करने वाला भी |
मोहपाश में जकड़ने वाली इन खूबसूरत कविताओं और सम्मोहित कर देने वाले चित्रों का अनूठा संकलन है "आधी रात के रंग "(midnight color) जो प्रतिष्ठित कवि आदरणीय विजेंद्र जी की अनमोल कृति है | कवि विजेंद्र लम्बे समय से कविता और चित्रकला को समर्पित हैं |
एक रचनाकार का अपना एक साम्राज्य होता है समुद्र की गहराई से लेकर आकाश की ऊंचाई तक ,उसमें उसकी कितनी पैठ है ये रचनाकर्म को देखकर अनुभव किया जा सकता है |
मेरे अनुसार क्रमबद्ध ही इन कविताओं का अपना सौंदर्य और वैभव जान पड़ता है -
मेरे लिए कविता रचने का / कोई खास क्षण नहीं/ मैं कोई गौरैया नहीं / जो सूर्योदय और सूर्यास्त पर / घौंसलें के लिए / चहचहाना शुरू कर दे
..लिखने की दृढ़ता के साथ साथ नितांत निजी भावों को कवि ने कविता में मुखर किया है |
जो कुछ कविता में छूटता है / मैंने चाहा की उसे / रंग बुनावट ,रेखाओं और दृश्य बिम्बों में / रच सकूँ
ये एक ही पंक्ति कवि के चित्रकला प्रेम को बखूबी दर्शाती है |
कहीं ना कहीं कविता और चित्रों को एक साथ पढ़ते हुए मैं विचलित भी हुई, लेटिन के महान कवि होरेस का एक कथन याद आया "चित्र एक मूक कविता है" |
"चित्र मेरे लिए सदा कविता के पूरक रहे हैं ,कवि करम के लम्बे दौर में चित्रकला मुझसे कभी दूर नहीं रही ..कविता मेरा जीवन है और चित्रकर्म उस जीवन जीने की रंगमयी प्रक्रिया - कवि विजेंद्र"
पढ़ते हुए मैंने भी जाना कि रंगों की एक समूची कविता शब्द बनकर कैनवास पर अपने आप ही बिखर जाती है |
रंगों की स्वायत्ता में भी कविता है/ ..कैनवास पर बिखर ..ओ रंगों दृश्य क्षितिज रचकर /मुझे कविता की ऐसी संगति दो /जहां मैं अपनी आत्मा का / आरोह अवरोह सुन सकूँ |
कवि का चित्रकला पक्ष और कवि पक्ष अपने ही मापदंडों पर भारी पड़ता है
इस रोयेंदार क्षण/ छायाएं सघन और खुरदरी हैं / नीरवता की क्षुब्द लहरें / खाली दीवारों से टकराती हैं जबकि मैं महसूस करता हूं / सुर्ख रंग की चीखें/ आह्लाद भूरे रंग का/ काले रंग का भूर्भंग/ गुलाबी रंग का हर्ष |
शीर्षक कविता "आधी रात के रंग" अद्वितीय रंगों से भरी एक सजीव कविता है जागती हुई, बोलती हुई जो घुप अंधेरों में भी जीवन के प्रति मद्धम पड़ रही संवेदनाओं को और गहरा करती है |
जहां मिथक का सच कविता एक परतों में विभाजित सच्चाई को सतह तक लाने का सफल प्रयास है वहीं
नागफणी अथाह दर्द से द्रवित ..
मेरे कांटों के कारण /मुझे कोई प्यार नहीं करता..ओ मेरी करमरेख/ प्रकृति ने मुझे /कैसा जड़ बना दिया है /जबकि मैं पत्थरीले उजाड़ में / जीवंत पौधा हूं |
बसंत के चित्र और कविता में हरापन स्याहपन में बदलता नजर आया है एक साथ में प्रश्न भी उभरा है बसंत को लेकर जो परिभाषाएं गाढ़ी जाती हैं उससे अलग कुछ और हो सकता है ..क्या हरा होना ही न्याय है ?
"अंकुरण" चित्र और कविता दोनों वर्तमान को सुनहरे भविष्य के साथ जोड़ते हुए और "क्रोंच मिथुन" मनुष्य प्रेम के अनोखे भाव को प्रदर्शित करती हुए |
इस संकलन को पढ़ना मेरे लिए बड़ा विचित्र अनुभव है ..एक तरफ चित्र है जो सहज और मूक कविता है वही दूसरी और रंग में डूबे अनेक सजीव आकृतियों को उकेरते शब्द |
गायक ,चट्टानों में लहरें ,प्रतीक्षा कविताएं अपने आप में बेहतरीन चित्र भी संजोये है और शब्द भी | हर चित्र अपने आप में एक सूक्षम अर्थ व्यक्त करता है ..
मैं साक्षी हूं इस बात की ..कवि का प्रेम और रुझान कविता और चित्रकला के प्रति ही नहीं.. जीवन की अनन्य खूबसूरती के प्रति भी है |
ये कहना सहज होगा कि कला की पराकाष्ठा का अंत नहीं ना ही कोई सीमा होती है
आदरणीय कवि विजेंद्र जी को असीम शुभकामनायें |
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चित्र और कविता की पंक्तियां काव्यसंग्रह "आधी रात के रंग" midnight color से ली गयी हैं
Wednesday 12 August 2015
सयुंक्त काव्य संकलन " सारांश समय का " से मेरी कविताएं...
"डाल से गिरा पतझड़"
तुम आओ एक बार
दे जाओ मुझे
मुट्ठी भर आकाश
अदृश्य स्वपन
प्रेम चिन्ह
अमर साहित्य
नरगिसी फूल
ताकि देख सकूं एक उजाले
को बढ़ते अपनी ओर
देख सकूं भविष्य की धरा पर
पहले बसंत को
गूँथ सकूं एक साथ कई प्रेम लताएं
ताकि रच सकूं कुंठित मन की धरातल पर
कालजयी रचनाएँ जो अमिट होंगी
शताब्दियों का सूर्य भी इसकी चमक
को फीका नहीं कर पायेगा
बिखेर सकूं अपने निर्जन वन में सुगंध
जो मनभावन होगी
तब तुम भी जान सकोगे
हवा के हलके स्पर्श को
चिरागों की उदासी को
सागर की गहराई को
बारिश में बनते इन्द्रधनुष को
एक व्यथित रात को
हम जब भी देखेगें
देखेंगे डाल से गिरा पतझड़
हाथों की लकीरों में
कुछ पुराने जख्म
एक सिली हुई सुबह में
सिरहाने रखे स्वपन भी
सिल हुए होंगे
"जाने तुम क्या खोजते हो"
जाने तुम क्या खोजते हो
अथाह समंदर की गहराइयों
से भी गहरे
कितनी तहों में छुपे हैं वो राज
जिनके नीचे मैं दब रही हूँ
मुमकिन है कि तुम्हें पा न सकूं
फिर भी घेरती हैं मुझे कितनी बातें
स्याह घनेरी ये अँधेरी रातें
तुम कदम न बढ़ाओ परवाह
नहीं मुझे
मेरी तरफ न आओ कोई चाह
नहीं मुझे
बस इतना जानती हूँ
दिल का कहा मानती हूँ
हर क्षण तुम्हें मेरे और करीब लाता है
और करीब बेहद करीब
इतना कि तुम्हारी तेज धड़कनों
को महसूस करती हूँ
फिर भी एक हाथ बढ़ाने में
देखो मैं कितना डरती हूँ
तनिक संदेह सा प्रतीत होता है
मुझे अपने ही प्रेम पर
तुम्हें पा लिया तो ऐसा न हो
मैं भी खोजती रह जाऊं तुम्हें
इस समंदर की गहराइयों में
जिसमें तुम भी कुछ खोजते हो
"नीला समंदर"
लो समा गयी पन्नों में दास्तां अपनी
एक इशारे पर दूर तक चल कर गयी
कहानियां अपनी
एक बुलबुला था जो हवा में हुआ फितूर
एक रंग था जज्वा था था एक गुरूर
पर्दाफाश होगा हर राज का पर होगा जरूर
गहरे जख्मों पर अब हमें नमक है मंजूर
बेदखल हुए हम हर राह से जो जिंदगी
तक जाती थी
और जिंदगी थी जो मुड़ मुड़ कर मौत
के साये तले जीने चली आती थी
अभी आसमान की दहलीज पर पावं
रखा ही था
कि जमीं ने किनारा कर लिया
आँख मिचौली खेलते सतरंगी सपनों
की जगह
आँखों को अश्कों ने भर लिया
दूर निकल आये इस तरह की लौटना
बाकि नहीं रह गया
वो नीला समंदर ही था जो रेत के
उस महल को संग लिए बह गया
"जिंदगी का दरख़्त"
कितनी गिरहें खोली हमने
अधजगे कभी पलकें मूंद कर
जिंदगी का कोई सिर हाथ न
आया
हौसले पस्त हुए मन के
सिल गए होंठ वक्त के
लफ्जों को भी हमने खामोश
पाया
रात के पहलु में ढलती सांझ को
देखा एक मायूस सी मुस्कराहट
लिए
हम भी बैठे थे चिरागों को
हाथों में ले लौ में कंपकंपाहट
लिए
सुलगते थे सितारे आसमां में
चांदनी भी थी जल रही
हैरां हैरां ख्वाब थे सारे
अधूरी ख्वाहिशें थी पल रही
ख़ामोशी के इस मौहौल में
बेरंग थे सारे जज्बात
कुछ तहें खुल रही थी
सिलवटों से भरे थे लिबास
जिंदगी के इस दरख़्त पर
न पत्ता न मौसम सब सूना
अपने ही साये तले ये सूनापन
बढ़ता जाता कई गुना
"अहसासों से भरे मोती"
तुम उस तरफ हो
और मैं इस तरफ हूं
बीच में बिखरे पड़े हैं एहसासों से
भरे शब्दों के मोती
बड़े प्यार से जब मैंने इन्हें छुआ
तो सहसा लगा
तुम्हारा स्पर्श प्राप्त कर लिया
सिहर गयी हूँ मैं ऊपर से नीचे तक
धीरे से कानों के पास जो ले गयी
लगा तुमने हौले से कुछ कहा
सुचकुचाते आंखों से जो लगाया
महसूस ये हुआ कि तुम्हें अभी अभी देखा
इन्हीं मोतियों को बड़े प्रेम से
अपने अधरों से चूमते हुए
एक पल में पूरी देह रोमांचित हो उठी है
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