मर्यादा के वृत्त में खड़ा कर औरत
सदियों से जिंदगी को जबरन ढोती
आज की सीता है तुमसे पूछ रही
क्यों पुरुषों की लक्ष्मण रेखा नहीं होती
फूल दूसरों के बिछौने में बिछा खुद
काँटों की सेज पर चारों पहर सोती
अयाशियों के दल दल से बाहर निकाल
अश्रुओं से पति का मैला दामन धोती
हर अंग जकड़ा हुआ है बेड़ियों में
समझती जैसे उन्हें बसरा का मोती
हर बार जीतते जीतते जंग हार जाती
दर्द के समंदर में अपने अरमान डुबोती
ढलती साँझ में उम्मीद की लौ जला कर
उसकी रौशनी में सब आशाएं खोती
बरसों की दहलीज पर जमी मिटटी को
गमले में रख अपने सपनों के बीज बोती
अपने कर्तव्यों का दायित्व निभाते हुए कब
एक आंख हस देती एक आंख उसकी रोती