Tuesday, 7 January 2014

मर्यादा में बंधी औरत







    मर्यादा में बंधी औरत 
    जीती है अपने अरमानों में
    जलाती सपनों की गीली लकड़ियां
    दबाती राख के मैदानों में

    एक आह निकल कर दौड़ती है 
    आँगन की दहलीज तक
    कभी सांसें नजर आती हैं 
    आधी अधूरी बंद मर्तबानों में

    ये किस्सा निकल आता है 
    रोज सुबह की अंगड़ाइयों से 
    लोग बातें करते हैं दिनभर
    बंद दबी जुबानों  में

    नीयतों की कालिख जमा 
    हो गयी है इन दिनों 
    कभी हीरा भी निकल आता है 
    कोयले की खदानों में

    कुछ जुर्म ऐसे भी हो गए 
    जान पाते इस से पहले 
    प्रेम के पंछी बंद हो गए 
    अतीत के तहखानों में 

    फूल उपवन सारे बीहड़ 
    जंगल बन गए हैं
    आँखें ढूंढती हैं कोई अपना 
    इन वीरानों में 

    बचपन के पन्ने को मासूमियत 
    से पलट दिया इस तरह  
    कि गिनती होने लगी 
    हमारी अब सयानों में



13 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
    नई पोस्ट सर्दी का मौसम!
    नई पोस्ट लघु कथा

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  2. दबा हुआ है भीतर ही बचपन भी और कई बीज भी उत्सुक हैं फूल बनने को...

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  3. सुंदर भावअभिव्यक्ति युक्त रचना

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  4. सुंदर अभिव्यक्ति .......

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  5. गहरे दर्द को उकेरती सुन्दर रचना.

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  6. सच कहा है ... कब बचपन से बाहर कर दिया जाता है बच्ची को पता ही नहीं चल पाता खुद घर वाले ही ऐसा कर देते हैं ...

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  7. हार्दिक आभार आपका यशवंत जी..

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  8. बचपन के पन्ने को मासूमियत
    से पलट दिया इस तरह
    कि गिनती होने लगी
    हमारी अब सयानों में...गजब मंजूषा जी ...नारी जीवन के कटु सत्य को बड़ी ही खूबसूरती से शब्दों में पिरो दिया आपने आभार ....सच अनुपम भाव संयोजन से सजी बेहतरीन भावाभिव्यक्ति।

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  9. वाह बहुत ही सुंदर ! हर नारी के जीवन की कहानी को मुखर कर दिया ! शुभकामनायें !

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  10. सुन्दर रचना

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  11. सुंदर रचना ...आभार

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  12. बचपन के पन्ने को मासूमियत
    से पलट दिया इस तरह
    कि गिनती होने लगी
    हमारी अब सयानों में

    ................सच कहा है

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  13. बहुत ही गहरे भावों को उकेरा है .... बहुत सुंदर रचना.....!!

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