मर्यादा में बंधी औरत
जीती है अपने अरमानों में
जलाती सपनों की गीली लकड़ियां
दबाती राख के मैदानों में
एक आह निकल कर दौड़ती है
आँगन की दहलीज तक
कभी सांसें नजर आती हैं
आधी अधूरी बंद मर्तबानों में
ये किस्सा निकल आता है
रोज सुबह की अंगड़ाइयों से
लोग बातें करते हैं दिनभर
बंद दबी जुबानों में
नीयतों की कालिख जमा
हो गयी है इन दिनों
कभी हीरा भी निकल आता है
कोयले की खदानों में
कुछ जुर्म ऐसे भी हो गए
जान पाते इस से पहले
प्रेम के पंछी बंद हो गए
अतीत के तहखानों में
फूल उपवन सारे बीहड़
जंगल बन गए हैं
आँखें ढूंढती हैं कोई अपना
इन वीरानों में
बचपन के पन्ने को मासूमियत
से पलट दिया इस तरह
कि गिनती होने लगी
हमारी अब सयानों में
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDeleteनई पोस्ट सर्दी का मौसम!
नई पोस्ट लघु कथा
दबा हुआ है भीतर ही बचपन भी और कई बीज भी उत्सुक हैं फूल बनने को...
ReplyDeleteसुंदर भावअभिव्यक्ति युक्त रचना
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति .......
ReplyDeleteगहरे दर्द को उकेरती सुन्दर रचना.
ReplyDeleteसच कहा है ... कब बचपन से बाहर कर दिया जाता है बच्ची को पता ही नहीं चल पाता खुद घर वाले ही ऐसा कर देते हैं ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका यशवंत जी..
ReplyDeleteबचपन के पन्ने को मासूमियत
ReplyDeleteसे पलट दिया इस तरह
कि गिनती होने लगी
हमारी अब सयानों में...गजब मंजूषा जी ...नारी जीवन के कटु सत्य को बड़ी ही खूबसूरती से शब्दों में पिरो दिया आपने आभार ....सच अनुपम भाव संयोजन से सजी बेहतरीन भावाभिव्यक्ति।
वाह बहुत ही सुंदर ! हर नारी के जीवन की कहानी को मुखर कर दिया ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteसुंदर रचना ...आभार
ReplyDeleteबचपन के पन्ने को मासूमियत
ReplyDeleteसे पलट दिया इस तरह
कि गिनती होने लगी
हमारी अब सयानों में
................सच कहा है
बहुत ही गहरे भावों को उकेरा है .... बहुत सुंदर रचना.....!!
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