आँखें देखती हैं जिंदगी की
आवाजाही धीरे धीरे
बचते बचाते मैं भी चलती हूँ
नदी के तीरे तीरे
फिर किसी बात की तुनक मिजाजी
फिर किसी बात पर ताना
सोचने पर विवश करने लगा
फिर क्यों हमको ये जमाना
दल दल इतना है सिकुड़ती है
जमीन एहसासों की
रोज चरमरा जाती है खिड़कियां
बनते विश्वासों की
हवा के झोंकें की सुगबुगाहट
खामोशियों को चीर देती है
बदलते रिश्तों की परिभाषाएं
अनचाहे आँखों में नीर देती हैं
सींचती हूँ बंजर जमीन पर
फूल पत्तों की धरोहर
सहनशीलता की बेदी पर लगी
कमजोरियों की नाजुक मोहर
एक दहलीज मेरी बस बाकी
घर लगता है बेगाना
अल्हड़ सी बन कर रह गयी
सारा अंगना हुआ सयाना
अपनों की चाह समझने में
कतार लग गयी प्रयासों की
अंदाजन नाप तोल लेती कभी
लगती झड़ी कयासों की
मन के कोने की सुनहरी धूप में
अब नयी कोंपले खिलती हैं
इसी बसंत के आने पर जीने की
वजह मुझे मिलती है
न ही अस्तित्व की नीवं न ही
ऐसी कोई तलाश चाहिए
परों को खोल उड़ सकूं बस एक
अपना सा आकाश चाहिए
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...!!
ReplyDeleteपरो को खोल उड़ सकूँ बस
एक अपना सा आकाश चाहिए ....
ऐसी कोई तलाश चाहिए
ReplyDeleteपरों को खोल उड़ सकूं बस एक
अपना सा आकाश चाहिए
इसी आकाश की तलाश सबको है...मिलेगा एक दिन..
बेहतरीन
ReplyDeleteसादर
waah sunder rachna..apna aakash..kuchh pehe ka ikha yaad aa gaya
ReplyDeleteshubhkamnayen
खूबसूरत नज़्म।
ReplyDeleteकाफी दिनों बाद कोई पोस्ट दिखी है आपकी ..... बहुत सुन्दर |
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (10-03-2014) को आज की अभिव्यक्ति; चर्चा मंच 1547 पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ek man mohak laghu katha, padh kar achha laga.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द रचना
ReplyDeletehttp://savanxxx.blogspot.in