मैं नारी हूँ सोचती नारी मन
रुधिर कंठ व्याकुल हर क्षण
मंद पवन के झोंके सी बहती
पर रहती तेज हृदय की जलन
पहली किरण प्रभात का गान
सूखती मिटटी धरा अभिमान
अश्रु जल से भीगा कण कण
यज्ञ की बनी पूर्ण आहुति सी
वेद ऋचाओं में अलंकृत सी
निर्मल आलौकिक गंगा पावन
मातृत्व की करुण कोमलता
सतीत्व की सावित्री पतिव्रता
भरा आँचल पर खाली दामन
फूल पाती कर सोलह श्रृंगार
रूप नव यौवन से भरे बाजार
लज्जित हुआ समक्ष देख दर्पण
चुकता करती सबका आभार
पूरा एहसास पर अधूरा प्यार
कर्ज कर्ज में डूब गया अपनापन
खाली दीवारें रह ढूंढती जवाब
जालों में उलझे लिपटे सवाल
पुकारता मेरा निरीह सूनापन
मन छोटा सा ओस बूँद जितना
समाई है सृष्टि ओज है इतना
अदभुत शक्तियों का मैं संगम
गढ़ती खुद ही अपनी परिभाषा
तरुवर के पत्तों सी अभिलाषा
भरता मुझे निशब्द खालीपन