वो उपवन की बाट जोहती
रेत के सेहरां में
झुलसाता हुआ झोंका नरमी
ले उड़ा चुनर के मानिंद
एक बूंद पानी और धुंआ होता
नीला क्षितिज
बदली खुद में प्यासी की प्यासी
न ही बरसी लौट गयी
हथेली भर उस नमी को
फिर से उधार लेने
सुदूर सागर की गहराइयों में
जहां अनवरत सीपियां सहेजती हैं
मोती जहन में
मौजें साहिलों के अधरों पर अधर
रख जाती अपने
देख आश्चर्यचकित मौन एक रेखा
सी खींच देती अपने चहुँ ओर
आशंकित है चिंतित है मन में
चलते द्वंध से
क्या होगा ?
व्योम के उस पार छिपे गर्भ में
आलौकिक उल्लास उसके लिए भी
जो क्षणिक न होगा
प्रेममयी सी विभोर हो उठती है
चल देती फिर उसी प्यासे
रेत के सेहरां की ओर...