वो उपवन की बाट जोहती
रेत के सेहरां में
झुलसाता हुआ झोंका नरमी
ले उड़ा चुनर के मानिंद
एक बूंद पानी और धुंआ होता
नीला क्षितिज
बदली खुद में प्यासी की प्यासी
न ही बरसी लौट गयी
हथेली भर उस नमी को
फिर से उधार लेने
सुदूर सागर की गहराइयों में
जहां अनवरत सीपियां सहेजती हैं
मोती जहन में
मौजें साहिलों के अधरों पर अधर
रख जाती अपने
देख आश्चर्यचकित मौन एक रेखा
सी खींच देती अपने चहुँ ओर
आशंकित है चिंतित है मन में
चलते द्वंध से
क्या होगा ?
व्योम के उस पार छिपे गर्भ में
आलौकिक उल्लास उसके लिए भी
जो क्षणिक न होगा
प्रेममयी सी विभोर हो उठती है
चल देती फिर उसी प्यासे
रेत के सेहरां की ओर...
भावपूर्ण अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteकल 20/नवंबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
बहुत बहुत आभार यशवंत जी..इस सम्मान हेतु..
Deleteकोमल भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteप्यासे से शब्दों का ताना बुनती हुयी रचना ..
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति....
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletewah...........
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteबहुत अच्छी व शानदार प्रस्तुती ।
ReplyDeleteउम्दा....बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@मेरे सपनों का भारत ऐसा भारत हो तो बेहतर हो
मुकेश की याद में@चन्दन-सा बदन