घने पेड़ों के बीच बनी पगडंडी उस गावं जाती थी
पैरों तले दबती उस घास का फिर से उग आना
देवदार की पत्तियों से हवा का टकराना
वो सायं सायं की आवाज आती थी
महकते जंगली फूलों की वो खुशबू
चहकती कोयल की वो कू-कू
जैसे कोई साज बजाती थी
पानी के झरनों की कडकती ठंडाई
गीले पत्थरों पर जमीं वो काई
जीवन का ठहराव दिखाती थी
ठंडी धुप की हलकी गरमाहट
हिलती पत्तियों की धीमी सुगबुगाहट
कोई राज सुनाती थी
दूर होती डालियों का पास आकर लिपटना
शोर करते झिगुर का होले से सिमटना
जैसे कोई सितार बजती थी
यहाँ वहां मंडराना रंग बिरंगी तितलियों का
शाम ढलते लौट आना उड़ते पंछियों का
घर की याद दिलाती थी
उठने लगी कहीं दूर धुंध हलकी हलकी
बरसाने लगी गीली बारिश छलकी छलकी
मिटटी की भीनी खुशबू आती थी
डाल बदन पर कम्बल हम लपेट चले
बिखरी हवाओं में यादें समेट चले
अब सिर्फ याद सताती थी
घने पेड़ों के बीच बनी पगडंडी उस गावं जाती थी
घने पेड़ों के बीच बनी पगडंडी उस गावं जाती थी......
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत प्रस्तुति....
उठने लगी कहीं दूर धुंध हलकी हलकी
ReplyDeleteबरसाने लगी गीली बारिश छलकी छलकी
मिटटी की भीनी खुशबू आती थी
बहुत सुंदर रचना,
डाल बदन पर कम्बल हम लपेट चले
ReplyDeleteबिखरी हवाओं में यादें समेट चले
अब सिर्फ याद सताती थी
....बहुत संवेदनशील सुन्दर शब्द-चित्र...बहुत सुन्दर
ये पगडण्डी ही तो जीवन है .. स्थिर रहती है पर कितने लम्हे गुज़र जाते नया एहसास लिए उस पर ...
ReplyDeleteजीवन के गाँव तक ले जाती, स्मृतियों की पगडंडी ने मुग्ध कर दिया........
ReplyDeletebahut hi sundar .........pagdandi aur prakritik chhata ka sundar rekhankan .......sangrhneey rachana ke hardik badhai .
ReplyDeleteअनुपम भाव संयोजन, इन कंक्रीट के जंगलों में अब नजाने कहाँ खो गयी वो पगडंडियाँ अब तो बस यादें है।
ReplyDeleteएकदम सटीक तुलना..बहुत सुन्दर सी प्यारी रचना ..
ReplyDeleteआपका शुक्रिया मेरे ब्लॉग चलते-चलते का अनुसरण करने के लिए .....हालाँकि आपकी रचनाएँ पहले भी पढता आया हूँ ....!!!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteवरन रचना नहीं …. एक चल चित्र जैसे नेत्र के सामने दिखता चला गया
बहुत सुन्दर लेखनी
बहुत बहुत बधाई