रास्ता अपने घर का
जंगल का
दुनिया का
वे जानते हैं सिर्फ पता
वे घर परिवार में रहते हैं
दुनिया में और युद्ध के मैदान में भी
किसी सेवक की तरह
अछूत की तरह
गुलाम की तरह
वे किसी फिसलन से नहीं घबराते
ना ऐंठते हैं
घबराये हुए लोग नाक ऊंची किये चलते हैं
कुछ कुछ ऐंठते हुए
उन्हें दिशाभ्रम नहीं होता
अज्ञान नहीं छूता
अहं की प्रवृति से दूर
वो रहते हैं मिटटी से सने
सदा ठोकरों में
वाह वाह ...बहुत सुन्दरता से बयां कर दिया समर्पण ...और पाठक को विवश कर दिया सोचने को
ReplyDeleteअति सुन्दर !
ReplyDeleteजज्बातों को सुन्दर अल्फाजों से सजाया है.....बहुत खूब...
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