बहती हवाओं के मध्य
खड़ी
अस्थिर
अनवरत प्रतीक्षा है
आकाश
ठहरा बादल
एक नाव
मेंहदी से सुर्ख हाथ
( वो हाथ मेरे )
दूब घास जो पीली होकर नीली काली हो गयी
कोई हृदय भी नहीं बचा
किसी हृदय के लिए
ममत्व के लिए
मोह
मौन सत्य के लिए
मगर तुम रहो
ब्रह्माण्ड के सर्वस्व ज्ञाता
सूरज
चंद्र
तारे बनकर
हाँ तुम रहो
किसी डाल पर बसंत के जैसे
खिलो इसी ऋतु में
इस युग का ऋण चुकाने के लिए
करो सारे जतन
सबसे प्रेम करने के लिए
बनो परमात्मा
संत कबीर
या फिर सफ़ेद नन्हा फूल
जो उगेगा बरसात की गीली मिटटी में
उस अमर सौन्दर्य की कल्पना करते हुए
तुम श्वास भरो
तुम रहो
प्रतीक्षा की सारी घड़ियां बीनते हुए
हाँ तुम रहो...
शब्द शब्द गहरे भाव जगाती आपकी रचना अप्रतिम है
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 11 अप्रैल 2020 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
वाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही लाजवाब सृजन
हाँ तुम रहो
ReplyDeleteकिसी डाल पर बसंत के जैसे
खिलो इसी ऋतु में
इस युग का ऋण चुकाने के लिए
करो सारे जतन
सबसे प्रेम करने के लिए
बनो परमात्मा
संत कबीर
वह !!!!!!! अथाह प्रेम और मन के ये क़तर भाव !!!!!! अनुपम व्यंजना !