Thursday 18 July 2013

ये परछाई कैसी है




खामोश निगाहों की ये उदासी कैसी है
बंद मुठ्ठी से रेत सरकने जैसी है
बरबस ही भर आता है मन
जब रोता है कोई दर्पण
ये तन्हाई कैसी है
कोई आहट सुनाई देती है 
कमरे में दिखाई देती है
ये परछाई कैसी है 
बेरंग हुई दीवारों की
दो टूटे हुए किनारों की 
ये जुदाई कैसी है 
मुरझा गयी हर कली
आज चमन में है चली
ये पुरवाई कैसी है 
सजा मुकम्मल न हुई उसकी
वक्त ने दी है जिसकी
ये गवाही कैसी है


8 comments:

  1. सुन्दर लेख

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  2. बरबस ही भर आता है मन जब रोता है कोई दर्पण बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ..!!

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  3. भावों को सटीक प्रभावशाली अभिव्यक्ति दे पाने की आपकी दक्षता मंत्रमुग्ध कर लेती है...

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  4. बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

    राज चौहान
    http://rajkumarchuhan.blogspot.in

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  5. बहुत सुंदर ,

    यहाँ भी पधारे ,

    हसरते नादानी में

    http://sagarlamhe.blogspot.in/2013/07/blog-post.html

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  6. ये तन्हाई कैसी है
    कोई आहट सुनाई देती है
    बहुत सुंदर,

    यहाँ भी पधारे
    गुरु को समर्पित
    http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_22.html

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  7. बहुत ही सुन्दर भाव अभिव्यक्ति...बधाई..

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