घने पेड़ों के बीच बनी पगडंडी उस गावं जाती थी
पैरों तले दबती उस घास का फिर से उग आना
देवदार की पत्तियों से हवा का टकराना
वो सायं सायं की आवाज आती थी
महकते जंगली फूलों की वो खुशबू
चहकती कोयल की वो कू-कू
जैसे कोई साज बजाती थी
पानी के झरनों की कडकती ठंडाई
गीले पत्थरों पर जमीं वो काई
जीवन का ठहराव दिखाती थी
ठंडी धुप की हलकी गरमाहट
हिलती पत्तियों की धीमी सुगबुगाहट
कोई राज सुनाती थी
दूर होती डालियों का पास आकर लिपटना
शोर करते झिगुर का होले से सिमटना
जैसे कोई सितार बजती थी
यहाँ वहां मंडराना रंग बिरंगी तितलियों का
शाम ढलते लौट आना उड़ते पंछियों का
घर की याद दिलाती थी
उठने लगी कहीं दूर धुंध हलकी हलकी
बरसाने लगी गीली बारिश छलकी छलकी
मिटटी की भीनी खुशबू आती थी
डाल बदन पर कम्बल हम लपेट चले
बिखरी हवाओं में यादें समेट चले
अब सिर्फ याद सताती थी
घने पेड़ों के बीच बनी पगडंडी उस गावं जाती थी