Sunday, 10 November 2013

भरता मुझे निशब्द खालीपन






मैं नारी हूँ सोचती नारी मन
रुधिर कंठ व्याकुल हर क्षण 
मंद पवन के झोंके सी बहती 
पर रहती तेज हृदय की जलन 
पहली किरण प्रभात का गान 
सूखती मिटटी धरा अभिमान 
अश्रु जल से भीगा कण कण 
यज्ञ की बनी पूर्ण आहुति सी
वेद ऋचाओं में अलंकृत सी 
निर्मल आलौकिक गंगा पावन
मातृत्व की करुण कोमलता
सतीत्व की सावित्री पतिव्रता 
भरा आँचल पर खाली दामन
फूल पाती कर सोलह श्रृंगार 
रूप नव यौवन से भरे बाजार 
लज्जित हुआ समक्ष देख दर्पण 
चुकता करती सबका आभार 
पूरा एहसास पर अधूरा प्यार 
कर्ज कर्ज में डूब गया अपनापन
खाली दीवारें रह ढूंढती जवाब 
जालों में उलझे लिपटे सवाल 
पुकारता मेरा निरीह सूनापन 
मन छोटा सा ओस बूँद जितना 
समाई है सृष्टि ओज है इतना
अदभुत शक्तियों का मैं संगम 
गढ़ती खुद ही अपनी परिभाषा 
तरुवर के पत्तों सी अभिलाषा 
भरता मुझे निशब्द खालीपन 

11 comments:

  1. अनुपम भाव संयोजन मंजूषा जी...यही तो है एक नारी का मन...

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  2. एहसासों का समंदर है आपकी यह कृति. बहुत बढ़िया.

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  3. सही कहा आपने,

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  4. कल 13/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  5. बहुत गहरी हृदय को छूती व प्रभावित करती हुई कविता , श्री मंजुषा जी धन्यवाद।
    " जै श्री हरि: "

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  6. गहन भाव लिए बहुत ही भावपूर्ण रचना....

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  7. भावमय प्रस्द्तुती .. नारी मन का दर्पण है रचना ...

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  8. वाह। नारी मन के भावों को कितनी खूबसूरती से उकेरा है।

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  9. बहुत बढ़िया नारी मन को उकेरा है .... सुंदर प्रस्तुति ..

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  10. एक स्त्री ही इतनी ख़ूबसूरती से स्त्री मन को पढ़कर शब्दों में लिख सकती है। बहुत ही सुन्दर रचना आपकी मंजूषा जी।

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