मैं नारी हूँ सोचती नारी मन
रुधिर कंठ व्याकुल हर क्षण
मंद पवन के झोंके सी बहती
पर रहती तेज हृदय की जलन
पहली किरण प्रभात का गान
सूखती मिटटी धरा अभिमान
अश्रु जल से भीगा कण कण
यज्ञ की बनी पूर्ण आहुति सी
वेद ऋचाओं में अलंकृत सी
निर्मल आलौकिक गंगा पावन
मातृत्व की करुण कोमलता
सतीत्व की सावित्री पतिव्रता
भरा आँचल पर खाली दामन
फूल पाती कर सोलह श्रृंगार
रूप नव यौवन से भरे बाजार
लज्जित हुआ समक्ष देख दर्पण
चुकता करती सबका आभार
पूरा एहसास पर अधूरा प्यार
कर्ज कर्ज में डूब गया अपनापन
खाली दीवारें रह ढूंढती जवाब
जालों में उलझे लिपटे सवाल
पुकारता मेरा निरीह सूनापन
मन छोटा सा ओस बूँद जितना
समाई है सृष्टि ओज है इतना
अदभुत शक्तियों का मैं संगम
गढ़ती खुद ही अपनी परिभाषा
तरुवर के पत्तों सी अभिलाषा
भरता मुझे निशब्द खालीपन
अनुपम भाव संयोजन मंजूषा जी...यही तो है एक नारी का मन...
ReplyDeleteएहसासों का समंदर है आपकी यह कृति. बहुत बढ़िया.
ReplyDeleteसही कहा आपने,
ReplyDeleteकल 13/11/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
बहुत गहरी हृदय को छूती व प्रभावित करती हुई कविता , श्री मंजुषा जी धन्यवाद।
ReplyDelete" जै श्री हरि: "
गहन भाव लिए बहुत ही भावपूर्ण रचना....
ReplyDeleteभावमय प्रस्द्तुती .. नारी मन का दर्पण है रचना ...
ReplyDeleteवाह ...अद्भुत
ReplyDeleteवाह। नारी मन के भावों को कितनी खूबसूरती से उकेरा है।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया नारी मन को उकेरा है .... सुंदर प्रस्तुति ..
ReplyDeleteएक स्त्री ही इतनी ख़ूबसूरती से स्त्री मन को पढ़कर शब्दों में लिख सकती है। बहुत ही सुन्दर रचना आपकी मंजूषा जी।
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