ध्वस्त होती शाखाओं के मध्य
एक फूल था खिला
स्वर्णिम रगों की आभा नाचती
परियों सी
हरित मन की बेल पर बरसी
बूँदें बरखा सी
सुदूर पर्वत से आती शोख
चंचल हवा
विचलित तन मन रोम रोम
सिहर उठा
गोद में धूल से लिपटे हुए
धरा
व्यक्त करती उसकी असहनीय
व्यथा
कुम्हलाया उदासियों में था
पड़ा
गुरूर था सुन्दरता देह का
इतना भरा
चहकता इतराता था जो
डाली डाली
वो क्षण गया छिन गयी वो
हसी ठिठोली
गुन गुन करते भँवरे अब
भी गाते हैं
राग मलहार जीवन का
सुनाते हैं
निर्मल मन की व्याख्या क्षणिक
देह से ऊपर है
अंत समय सब राख धुएं का
गुब्बार भर है
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका ..यशवंत यश जी..
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर..
ReplyDeleteनिर्मल मन की व्याख्या क्षणिक
ReplyDeleteदेह से ऊपर है
अंत समय सब राख धुएं का
गुब्बार भर है
बहुत सुंदर पंक्तियाँ...
ध्वस्त होती शाखाओं के मध्य
ReplyDeleteएक फूल था खिला
स्वर्णिम रगों की आभा नाचती
परियों सी
हरित मन की बेल पर बरसी
बूँदें बरखा सी
बहुत सुंदर भाव