Thursday 10 October 2013

एक फूल








ध्वस्त होती शाखाओं के मध्य 
एक फूल था खिला 
स्वर्णिम रगों की आभा नाचती 
परियों सी 
हरित मन की बेल पर बरसी 
बूँदें बरखा सी
सुदूर पर्वत से आती शोख 
चंचल हवा 
विचलित तन मन रोम रोम
सिहर उठा 
गोद में धूल से लिपटे हुए 
धरा 
व्यक्त करती उसकी असहनीय 
व्यथा  
कुम्हलाया उदासियों में था
पड़ा  
गुरूर था सुन्दरता देह का
इतना भरा 
चहकता इतराता था जो
डाली डाली 
वो क्षण गया छिन गयी वो
हसी ठिठोली 
गुन गुन करते भँवरे अब 
भी गाते हैं 
राग मलहार जीवन का 
सुनाते हैं   
निर्मल मन की व्याख्या क्षणिक 
देह से ऊपर है 
अंत समय सब राख धुएं का 
गुब्बार भर है 












6 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति

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  2. हार्दिक आभार आपका ..यशवंत यश जी..

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  3. निर्मल मन की व्याख्या क्षणिक
    देह से ऊपर है
    अंत समय सब राख धुएं का
    गुब्बार भर है

    बहुत सुंदर पंक्तियाँ...

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  4. ध्वस्त होती शाखाओं के मध्य
    एक फूल था खिला
    स्वर्णिम रगों की आभा नाचती
    परियों सी
    हरित मन की बेल पर बरसी
    बूँदें बरखा सी

    बहुत सुंदर भाव

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