Saturday, 26 October 2013

लक्ष्मण रेखा







र्यादा के वृत्त में खड़ा कर औरत
सदियों से जिंदगी को जबरन ढोती

आज की सीता है तुमसे पूछ रही 
क्यों पुरुषों की लक्ष्मण रेखा नहीं होती

फूल दूसरों के बिछौने में बिछा खुद 
काँटों की सेज पर चारों पहर सोती

अयाशियों के दल दल से बाहर निकाल 
अश्रुओं से पति का मैला दामन धोती

हर अंग जकड़ा हुआ है बेड़ियों में
समझती जैसे उन्हें बसरा का मोती

हर बार जीतते जीतते जंग हार जाती 
दर्द के समंदर में अपने अरमान डुबोती

ढलती साँझ में उम्मीद की लौ जला कर
उसकी रौशनी में सब आशाएं खोती 

बरसों की दहलीज पर जमी मिटटी को
गमले में रख अपने सपनों के बीज बोती

अपने कर्तव्यों का दायित्व निभाते हुए कब 
एक आंख हस देती एक आंख उसकी रोती


Thursday, 10 October 2013

एक फूल








ध्वस्त होती शाखाओं के मध्य 
एक फूल था खिला 
स्वर्णिम रगों की आभा नाचती 
परियों सी 
हरित मन की बेल पर बरसी 
बूँदें बरखा सी
सुदूर पर्वत से आती शोख 
चंचल हवा 
विचलित तन मन रोम रोम
सिहर उठा 
गोद में धूल से लिपटे हुए 
धरा 
व्यक्त करती उसकी असहनीय 
व्यथा  
कुम्हलाया उदासियों में था
पड़ा  
गुरूर था सुन्दरता देह का
इतना भरा 
चहकता इतराता था जो
डाली डाली 
वो क्षण गया छिन गयी वो
हसी ठिठोली 
गुन गुन करते भँवरे अब 
भी गाते हैं 
राग मलहार जीवन का 
सुनाते हैं   
निर्मल मन की व्याख्या क्षणिक 
देह से ऊपर है 
अंत समय सब राख धुएं का 
गुब्बार भर है 












मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...