Friday, 22 June 2018

मैं देख रही थी...






                                             




मैं देख रही थी 
गहरी घाटियां

सुन्दर झरने 
फल फूल तालाब 
और हो रही थी आबाद 

तभी चुपके से पहाड़ ने झुक कर नदी को चूमा 

मेरे देखने से पहले 
ये सब सोच लेने से पहले
नदी हो गयी स्त्री 
और मैं हो गयी प्रकृति

नदी का स्त्री होना नदी पर निर्भर था 
और मेरा मुझ पर  




Tuesday, 10 October 2017

हाँ तुम रहो...









                               




बहती हवाओं के मध्य
खड़ी
अस्थिर
अनवरत प्रतीक्षा है
आकाश
ठहरा बादल
एक नाव

मेंहदी से सुर्ख हाथ
( वो हाथ मेरे )
दूब घास जो पीली होकर नीली काली हो गयी
कोई हृदय भी नहीं बचा
किसी हृदय के लिए
ममत्व के लिए
मोह
मौन सत्य के लिए

मगर तुम रहो
ब्रह्माण्ड के सर्वस्व ज्ञाता
सूरज
 चंद्र
 तारे बनकर

हाँ तुम रहो
किसी डाल पर बसंत के जैसे
खिलो इसी ऋतु में
इस युग का ऋण चुकाने के लिए
करो सारे जतन
सबसे प्रेम करने के लिए
बनो परमात्मा
संत कबीर

या फिर सफ़ेद नन्हा फूल
जो उगेगा बरसात की गीली मिटटी में
उस अमर सौन्दर्य की कल्पना करते हुए
तुम श्वास भरो
तुम रहो

प्रतीक्षा की सारी घड़ियां बीनते हुए
हाँ तुम रहो...








Saturday, 19 August 2017

दो लिख रही हूं







तुम जानते हो 
दोधारी तलवार पर चलना क्या होता है

शायद नहीं जानते 
मेरे पास बेबुनियादी बातों का ढेर नहीं है 
बल्कि हथकरघे के पंजों में फसे कितने ही सटीक धागे हैं 
जो आगे पीछे ऊपर नीचे होने पर नहीं उलझते 
जैसे पहाड़ की ऊँची चोटी की तीखी नोकदार ढलान पर घास चरती भेड़ बकरियां नहीं गिरती 

रिवाज के मुताबिक जिस्म और रूह का अलग अलग हो जाना  
रात ढलते ही समझौता करना 
तकिये का गीला होना 
एक उम्मीद का धीरे से खिसकना 
रात के अंतिम पहर में हौले से उठना 

अधूरी कंघी कर के वे नुमाइश के लिए नहीं निकलती 
जितना हो सकता है 
जंगल में जाकर लकड़ियां बटोरती हैं आनन फानन में 
इस पशोपेश में भी 
कोई जिंदगी का सिरा ही हाथ लग जाये 
अपनी मजबूती जांचने के लिए कमजोर टहनियों पर कुल्हाड़ी भी चला लेती हैं
दराती से घास काटते वक्त कितने जख्म भर जाते होंगे और रिस जाते होंगे 
धान की बुआई में झुकती डालियां किसी केल्शियम की मोहताज नहीं होती
बीसियों बड़ी बातें होती हैं 

दो लिख रही हूं  
वजूद से हट कर औरत होना 
वादे के मुताबिक जिन्दा होना 









Friday, 28 October 2016

एक दिन जिंदगी...










दिन जलता है 
और रात आहें भरती है 

मालूम भी हो कि जिंदगी किस वक्त जीनी है 

थोड़ा थोड़ा ही सही 
आंगन का दरख़्त हर रोज झड़ता है 
आसमान को मुट्ठियों में लपेटे हुए 
टहनियों से अनाम चेहरे उतर आते हैं 
धूल की सतह तक  

आखिरी सफर एक उम्मीद तक 
जो रहता ही नहीं 
रह जाती है खलिश उसकी 
वक्त से पंख लेकर बैठे रहते हैं कई परिंदे 
वो उड़ते क्यों नहीं 

मेरा ख्याल है 
हर बार का उड़ना उड़ना नहीं होता 
न ही हर रोज का जीना जीना 
ये मुकम्मल सौदागरी है अंधेरे की  

जी रही है रौशनी हर लिहाज से मरने के लिए  

Tuesday, 27 September 2016

राम की मैं सीता थी






                               

तुम मुझे देवी का दर्जा ना दो  
तुम मेरी महिमा का बखान ना करो

ना ही मेरी ममता करुणा वात्सल्य जैसी भावनाओं का ढोंग रचाओ 
देह का सौंदर्य और प्रेम का गुणगान किसी कविता में ना करो 
मेरे त्याग और बलिदान को जग से ना कहो
मुझे गृहलक्ष्मी और अन्नपूर्णा जैसे देवीय नाम ना दो 

मैं जानती हूँ सब 
ये सब तुम क्यों कहते हो 
कितना छल करोगे मुझसे 
मैं निष्प्राण नहीं काठ की मूर्ति जैसी
मैं सांस लेती हूं 
दर्द से विहल होती हूं 

देवी का दर्जा देकर और क्या क्या करवाओगे 
देवी होने के वाबजूद मैं अपने अस्तित्व की तलाश में हूं
आखिर क्यों ?
मैं मूढ़मति इतना भी ना जान सकी  

राम की मैं सीता थी 
थी महाभारत में मैं पांच पतियों वाली 
मानव क्या 
देवता क्या   
स्वयं ईश्वर के हाथों जो छली गयी 
वो थी मैं

एक आग्रह 
एक विनती है तुमसे मेरी 
तुम मुझे सिर्फ एक इंसान ही रहने दो 



Thursday, 22 September 2016

हमें नहीं आता हाथ पकड़ना






                            




हमें नहीं आता हाथ पकड़ना 
साथ बैठना 
रास्ता दिखाना 
किसी के आंसू पौंछना

जब हो रही हो कठोर दर कठोर जिंदगी 
पार कर रहे पहाड़ जैसे अनुभव 
पराधीनता से लैस बर्चस्व 
दरारों के जैसे प्रयास 

सूख रहें हो जलप्रपात 
अपनी ही मिटटी अपने हाथों से छूटती जा रही हो 
और छूट रहे हों शरीर से प्राण 

तब अटल समाधान हो सकता था 
नवनिर्मित किया जा सकता था विश्वास 
दे सकते थे अपनापन 
दूर हो सकता था अंधकार  
लौट सकती थी सुबह 

और उजली हो सकती थी चांदनी 

मगर किताबी बातों को परे रख 
क्षण भर को आये स्वार्थ को दूर कर 
हम नहीं जुटा सके हौसला 
ना कर सके सामने से मदद 
न जोड़ सके उसकी हड्डियां 
न ही फूंक सके उसमें प्राण 

हमें आता है 
पीठ पीछे ढोंग करना 
मगरमच्छ के आंसू बहाना
दया दिखाना 
ग्लानि भाव लिए 
अपराध बोध से ग्रस्त होना  

हमें नहीं आता 
कठिनतम समय में किसी से प्रेम करना 


Monday, 31 August 2015

नागफणी और मैं





                                    





समय की रेत में तपती 
नागफणी और मैं 
क्या अभयदान के जैसा जीवनदान होगा 
हम दोनों का

पीड़ा की अनेक गाथाएं रची जा रही हैं  
मेघों की पहली बूंद से फूटती तुम  
दर्द की कविता सी फलती मैं

कांटों का नुकीलापन
अंतर्द्वंद्वों का संताप  
बेदनाओं की सीमा से परे

कठोर दर कठोर हुई आदतन 

मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...