Sunday, 10 November 2013

भरता मुझे निशब्द खालीपन






मैं नारी हूँ सोचती नारी मन
रुधिर कंठ व्याकुल हर क्षण 
मंद पवन के झोंके सी बहती 
पर रहती तेज हृदय की जलन 
पहली किरण प्रभात का गान 
सूखती मिटटी धरा अभिमान 
अश्रु जल से भीगा कण कण 
यज्ञ की बनी पूर्ण आहुति सी
वेद ऋचाओं में अलंकृत सी 
निर्मल आलौकिक गंगा पावन
मातृत्व की करुण कोमलता
सतीत्व की सावित्री पतिव्रता 
भरा आँचल पर खाली दामन
फूल पाती कर सोलह श्रृंगार 
रूप नव यौवन से भरे बाजार 
लज्जित हुआ समक्ष देख दर्पण 
चुकता करती सबका आभार 
पूरा एहसास पर अधूरा प्यार 
कर्ज कर्ज में डूब गया अपनापन
खाली दीवारें रह ढूंढती जवाब 
जालों में उलझे लिपटे सवाल 
पुकारता मेरा निरीह सूनापन 
मन छोटा सा ओस बूँद जितना 
समाई है सृष्टि ओज है इतना
अदभुत शक्तियों का मैं संगम 
गढ़ती खुद ही अपनी परिभाषा 
तरुवर के पत्तों सी अभिलाषा 
भरता मुझे निशब्द खालीपन 

मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...