Friday 28 October 2016

एक दिन जिंदगी...










दिन जलता है 
और रात आहें भरती है 

मालूम भी हो कि जिंदगी किस वक्त जीनी है 

थोड़ा थोड़ा ही सही 
आंगन का दरख़्त हर रोज झड़ता है 
आसमान को मुट्ठियों में लपेटे हुए 
टहनियों से अनाम चेहरे उतर आते हैं 
धूल की सतह तक  

आखिरी सफर एक उम्मीद तक 
जो रहता ही नहीं 
रह जाती है खलिश उसकी 
वक्त से पंख लेकर बैठे रहते हैं कई परिंदे 
वो उड़ते क्यों नहीं 

मेरा ख्याल है 
हर बार का उड़ना उड़ना नहीं होता 
न ही हर रोज का जीना जीना 
ये मुकम्मल सौदागरी है अंधेरे की  

जी रही है रौशनी हर लिहाज से मरने के लिए  

मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...