महक नरगिसी फूलों की आई जंगल से
न पता न मालूम कौन उसका माली है
मुहब्बतों अल्फाजों से भरे पन्ने दिखे
मगर दिखे सबके दिल खाली खाली हैं
ये कौन है जो रोकता है उसका रास्ता
उजाड़ मन के बीहड़ कोने में झांकता
एक सांवला सलौना रूप नजर आया
उडी जो रुख पर जुल्फें काली काली हैं
मन को सींचते भीगे भीगे थे एहसास
पहली बूंद से अंकुर में जगी वो प्यास
बेरुखी पतझड़ से भी ज्यादा हो जाए
क्या सोच जहन में ऐसी ऋतुएँ पाली हैं
प्रतिमा यौवन की करती अपना श्रृंगार
मिलन की आस प्रेम भी आ पहुंचा द्वार
आहट से तेज हुई धड़कनें हया से घिरी
चौखट पर गिरी उसकी लटकती बाली है