Sunday 16 February 2014

अपना सा आकाश








आँखें देखती हैं जिंदगी की
आवाजाही धीरे धीरे 
बचते बचाते मैं भी चलती हूँ
नदी के तीरे तीरे 
फिर किसी बात की तुनक मिजाजी 
फिर किसी बात पर ताना
सोचने पर विवश करने लगा 
फिर क्यों हमको ये जमाना 
दल दल इतना है सिकुड़ती है
जमीन एहसासों की 
रोज चरमरा जाती है खिड़कियां
बनते विश्वासों की
हवा के झोंकें की सुगबुगाहट 
खामोशियों को चीर देती है 
बदलते रिश्तों की परिभाषाएं
अनचाहे आँखों में नीर देती हैं 
सींचती हूँ बंजर जमीन पर
फूल पत्तों की धरोहर 
सहनशीलता की बेदी पर लगी
कमजोरियों की नाजुक मोहर
एक दहलीज मेरी बस बाकी 
घर लगता है बेगाना
अल्हड़ सी बन कर रह गयी
सारा अंगना हुआ सयाना 
अपनों की चाह समझने में 
कतार लग गयी प्रयासों की 
अंदाजन नाप तोल लेती कभी 
लगती झड़ी कयासों की
मन के कोने की सुनहरी धूप में
अब नयी कोंपले खिलती हैं 
इसी बसंत के आने पर जीने की 
वजह मुझे मिलती है
ही अस्तित्व की नीवं ही
ऐसी कोई तलाश चाहिए 
परों को खोल उड़ सकूं बस एक
अपना सा आकाश चाहिए  

  

8 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...!!
    परो को खोल उड़ सकूँ बस
    एक अपना सा आकाश चाहिए ....

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  2. ऐसी कोई तलाश चाहिए
    परों को खोल उड़ सकूं बस एक
    अपना सा आकाश चाहिए

    इसी आकाश की तलाश सबको है...मिलेगा एक दिन..

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  3. waah sunder rachna..apna aakash..kuchh pehe ka ikha yaad aa gaya


    shubhkamnayen

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  4. खूबसूरत नज़्म।
    काफी दिनों बाद कोई पोस्ट दिखी है आपकी ..... बहुत सुन्दर |

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (10-03-2014) को आज की अभिव्यक्ति; चर्चा मंच 1547 पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. gajraj singh nagar13 July 2014 at 02:42

    ek man mohak laghu katha, padh kar achha laga.

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  7. बहुत सुन्दर शब्द रचना
    http://savanxxx.blogspot.in

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